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लेखनी प्रतियोगिता -12-Apr-2023 ययाति और देवयानी

भाग 83  शर्मिष्ठा को शुक्राचार्य के आश्रम में आये हुए कई दिन व्यतीत हो गये थे । देवयानी उसे नीचा दिखाने का कोई अवसर ग॔वाती नहीं थी । देवयानी के अभद्र व्यवहार से शर्मिष्ठा के हृदय में गहरा आघात लगता था । उसका हृदय खून के आंसू रोता था किन्तु अब तो उसकी यही नियति थी । अपमानित होना उसके जीवन का आवश्यक अंग हो गया था । ऐसे समय में उसे ययाति बहुत याद आते थे । उसे ऐसा लगता था कि वह ययाति की बांहों में सोई हुई है । ययाति का साथ पाकर वह अपने सारे दुख भूल जाती थी । वह मन ही मन अपने प्रियतम से प्रार्थना करती थी कि वे अब शीघ्र आकर देवयानी को अपने साथ लेकर जायें जिससे वह उनके दर्शन करती रहे । यद्यपि उसे ज्ञात था कि जब सम्राट देवयानी के साथ पाणिग्रहण संस्कार करेंगे तब वह उस दृश्य को किस तरह से देख पायेगी ? किन्तु प्रियतम को देखकर उसके नयन और हृदय को शीतलता अवश्य मिल जायेगी । वह सम्राट को देख देखकर अपने सारे दुख दर्द भूल जाएगी । वह सोचती कि काश ! सम्राट मेरे मन की व्यथा समझ पाते ?

एक दिन देवयानी ने शुक्राचार्य से कहा "तात् ! आपको तो ज्ञात ही है कि मैंने गन्धर्व रीति से हस्तिनापुर के सम्राट को अपने पति के रूप में चुन लिया है । यदि आप इस संबंध से सहमत हों तो मेरा पाणिग्रहण उनके साथ कर इस संबंध को पूर्णता प्रदान करें । अपनी सहमति के रूप में सम्राट को सूचना प्रेषित कर दें जिससे वे बारात लेकर आ जायें । कोई शुभ मुहूर्त निकलवा कर यह शुभ कार्य शीघ्र कर दें जिससे मैं अब सम्राट की सेवा कर सकूं" ।

"सही कह रही हो पुत्री । अब तुम मेरी पुत्री तो हो लेकिन सम्राट ययाति की वागदत्ता भी हो । अब तुम अपने दाम्पत्य जीवन के समस्त दायित्वों का निर्वहन करो , यह समीचीन है । पुत्री से बिछोह की व्यथा बहुत दर्दनाक होती है इसलिए प्रत्येक पिता चाहता है कि उसकी पुत्री कुछ दिन और उसके यहां रुक जाये । लेकिन बेटियों को तो "अपने घर" जाना ही पड़ता है । मैं भी तुम्हें कब तक रोक पाऊंगा ? ये बात और है कि मैंने तुम्हें माता और पिता दोनों का ही प्रेम दिया है । इसलिए तुमसे बिछुड़ने का दर्द भी दुगना तो होगा ही । किन्तु जब बेटी की विदाई होती है तो एक पिता को गर्व भी होता है कि उसने कन्यादान करके अपना पुत्री ऋण उतार दिया है । मैं भी तुम्हारे हाथ पीले करने के लिए उत्सुक हो रहा हूं, पुत्री । मैं आज ही मुहुर्त निकाल कर सम्राट के पास संदेश भिजवाता हूं" । शुक्राचार्य देवयानी की ओर देखते हुए बोले ।

शर्मिष्ठा एक कोने में खड़ी खड़ी उन दोनों की बातें सुन रही थी । उसके मन में उल्लास का झरना फूट पड़ा था । "लगता है कि अब वो घड़ी आ गई है जब 'स्वामी' का साक्षात दर्शन होगा । चित्रलेखा ने जो चित्र बनाया था क्या एकदम वैसे ही होंगे वे ? मैं तो उन्हें देख देखकर ही जी लूंगी । मुझे और कुछ नहीं चाहिए, बस उनका दर्शन चाहिए" । शर्मिष्ठा के बदन में रोमांच हो आया ।  "अरे, तू खड़ी क्यों है ? इधर आ और मेरे सिर की चम्पी कर दे जरा । बहुत तेज दर्द हो रहा है यहां" । बिना काम के शर्मिष्ठा को खड़ी देखकर देवयानी अचानक से उबल पड़ी । देवयानी के डांटनुमा आदेश से शर्मिष्ठा सहम गई और वह दौड़कर देवयानी के पास आ गई ।  "आ गई महारानी जी । यदि बनने संवरने से थोड़ा वक्त मिल जाये तो मेरी थोड़ी सी चंपी कर दे । बहुत दिन हो गये हैं तुझे चंपी किये" ।

यूं तो शर्मिष्ठा को चंपी करना आता ही नहीं था । उसे तो चंपी करने की नहीं करवाने की आदत थी इसलिए देवयानी ने ही उसे चंपी करना सिखाया था  । वह पूरे मनोयोग से देवयानी की चंपी करने लगी और देवयानी किसी महारानी की तरह चंपी का आनंद लेने लगी ।

शुक्राचार्य ने एक दूत सम्राट ययाति के पास भेजा । दूत सम्राट ययाति के दरबार में जा पहुंचा । जब सम्राट को पता चला कि शुक्राचार्य ने दूत भेजा है , तो उन्होंने उसका भाव भीना आदर सत्कार किया और उसे उचित सम्मान देकर उचित आसन पर बैठाया गया । दूत से यहां आने का प्रयोजन पूछा तो दूत ने एक पत्र सम्राट को दे दिया । सम्राट उस पत्र को पढकर मुस्कुराने लगे । सम्राट की मुस्कुराहट देखकर सब दरबारियों को चैन आ गया । शुक्राचार्य का खौफ बहुत तगड़ा था । ययाति के मित्र और कवि राजशेखर उनकी मुस्कान देखकर ही समझ गये कि बात "संयोग श्रंगार" से संबंधित है । ऐसे भाव तभी आते हैं जब प्रिया से मेल होने की संभावना हो । उसने सभी लोगों को संबोधित करते हुए एक श्लोक सुनाया जिसका भावार्थ था

वर्षों से था इंतजार इस शुष्क मरुस्थल को  कि कभी तो कोई बदली आकर प्यास बुझायेगी  वह दीवानी सी होकर झूम झूम के बरसात करेगी  मेरे हृदय रूपी उपवन की कली कली खिल जायेगी  लगता है कि आज सावन के आने का संदेशा आ गया  आज तो मरुस्थल भी बदली को देखकर मुस्कुरा गया  शुष्क मरुधरा के कण कण से प्रेम के झरने फूटने लगे हैं  क्या कहें हम भी उस प्रेम मयी बरसात में डूबने लगे हैं

कवि राजशेखर के इस श्लोक पर पूरी राज सभा में हर्षोल्लास की लहर दौड़ गई । सब लोग सम्राट से आग्रह करने लगे कि शुक्राचार्य के पत्र को सभा में पढकर सुनाया जाये । सभी लोगों के आग्रह को ययाति ठुकरा न सका और उसने वह पत्र राजशेखर को पढने के लिए दे दिया । राजशेखर वह पत्र पढने लगा

"सम्राट ययाति  यशस्वी भव ।  मेरी सुपुत्री देवयानी ने मुझे अवगत करवाया है कि आपने मेरी पुत्री को एक गहरे कुंए से निकाल कर आपने उसकी जान बचाई है । आपकी इस दयालुता के लिए मैं आपका हृदय से आभार प्रकट करता हूं और आपको आशीर्वाद देता हूं कि आपकी कीर्ति पूरे विश्व में फैले । आपने न केवल देवयानी की जान बचाई है अपितु उसे शर्मसार होने से भी बचाया है । यह आपके उच्च संस्कारों का परिचायक है । ईश्वर से विनती करता हूं कि आप अपने संस्कारों को आगे भी बनाये रखेंगे ।  मेरी पुत्री ने मुझे यह भी अवगत करवाया है कि आपने उसे कुंए से बाहर निकालते समय उसका हाथ थाम लिया था । आपका यह कृत्य हमारे आनंद का उत्सव बन गया है । देवयानी भी चाहती है कि जिसने उसे जीवन दान दिया है उसी देवात्मा की सेवा में अपना समस्त जीवन अर्पण कर दे । सम्राट नहुष को कौन नहीं जानता है ? उन्होंने अपने ज्ञान , कर्म और पराक्रम से त्रैलोक्य में प्रसिद्धि पाई है । आप भी उनके पदचिन्हों पर चल रहे हैं । आपने अल्पायु में ही अपना बहुत ऊंचा स्थान बना लिया है । आप ब्राहणत्व और क्षत्रियत्व का अद्भुत संगम हैं । इसलिए आपको अपना जामाता बनाने पर मैं गौरवान्वित हो रहा हूं । मैं एक अकिंचन हूं और आप एक सम्राट हैं । मेरे पास मेरी पुत्री देवयानी के अतिरिक्त देने को और कुछ नहीं है । हां, उसकी सखि शर्मिष्ठा जो अब देवयानी की दासी बन गई है , वह भी देवयानी के साथ साथ हस्तिनापुर जायेगी । इस पर आपको कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए ।  विवाह कोई दो शरीरों का मिलन नहीं है अपितु दो आत्माओं का मिलन है और दो परिवारों का सम्मिलन है । इसलिए यह कार्य किसी शुभ दिन होना आवश्यक है । मैंने नक्षत्रों की सारी गणना कर ली है और फाल्गुन मास की शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को मैं आप दोनों के विवाह के लिए सर्वश्रेष्ठ मानता हूं । अत: आप पूरी बारात लेकर हमारी कुटिया में पधारें और हमारा आतिथ्य स्वीकार करें । नियत तिथि को पाणिग्रहण संस्कार होगा । उसके पश्चात आप और देवयानी अपने नगर हस्तिनापुर को प्रस्थान करना । पत्र के साथ निमंत्रण के लिए मैं पीले चावल प्रेषित कर रहा हूं जिन्हें स्वीकार कर मुझे अनुगृहीत कीजिये  आपका अपना  शुक्राचार्य

पत्र पढकर सब लोग झूमने लगे । गन्धर्व, यक्ष, किन्नर भांति भांति के वाद्य यंत्र बजाने लगे । झूम झूमकर नृत्य करने लगे और बधावे गाने लगे । पूरा हस्तिनापुर एक बार फिर से आनंद के समुद्र में डूब गया । नहुष के पतन के पश्चात हस्तिनापुर में उदासी छा गई थी । आज वह उदासी सदा सदा के लिए अदृश्य हो गई ।

श्री हरि  28.8.23

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5 Comments

Babita patel

04-Sep-2023 08:29 AM

Amazing

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kashish

03-Sep-2023 04:31 PM

Nice

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KALPANA SINHA

03-Sep-2023 09:36 AM

Nice

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